हरीश की एक पत्नी थी जो बहुत बोलती थी और वह उसके ज्यादा बोलने से बहुत परेशान था हरीश को पता चला कि जंगल में एक महात्मा आए हुए हैं वह अपनी पत्नी को उनके पास लेकर जाता है और कहता है कि मुनिवर कृपा करके आप इसे समझाइए यह बहुत बोलती है मेरे मना करने के बाद भी इसका दिन भर इसका मुंह चलता ही रहता है मैं इसे कितना समझाता हूं कि कम बोला कर, चुप रहना सिख लेकिन नहीं और हर बार इसकी वजह से लड़ाई होती है महात्मा मुस्कुराए और बोले मैं तुम्हें इस बात को एक कहानी की मदद से समझाता हूं मेरे गुरु का एक शिष्य था जो बहुत बोलता था वह हर समय इधर-उधर की बातें करता था और कभी शांत नहीं रहता था जब वह दान लेने के लिए जाता तो हर घर से एक नई कहानी लेकर आता और आश्रम के दूसरे शिष्यों को सुनाता और एक शिष्य की दूसरे से बुराई करता चुगली करता और दूसरों के सामने अच्छा बनने का प्रयास करता और खुद के मुंह से ही खुद की तारीफ करता रहता और हम हमेशा खुद को गुरु के सामने सबसे बुद्धिमान और उत्तम साबित करने का प्रयास करता वह खुद को सभी शिष्यों से अलग और श्रेष्ठ मानता था उसका कहना था कि मैं एक अमीर घर का बालक हूं अगर मैं चाहता तो एक आरामदायक और सुविधाओं से भरा जीवन जी सकता लेकिन मैं वह सब छोड़कर यहां आ गया क्योंकि मुझे कुछ खोज करना है खुद को जानना है जीवन को जानना है एक दिन गुरु ने आश्रम के सभी शिष्यों को बुलाकर कहा आप सभी को अगले एक महीने के लिए कोई ना कोई संकल्प लेना होगा इससे आपकी संकल्प शक्ति मजबूत होगी और आप में आत्मशक्ति का संचार होगा आप सभी अपने सामर्थ्य के अनुसार कोई भी संकल्प ले सकते हैं और यदि एक महीने से पूर्व आप में से जिसका भी संकल्प टूट जाएगा तो वह अपनी पुरानी दिनचर्या में वापस आ सकता है सभी शिष्यों ने अपनी शक्ति के अनुसार संकल्प लिए और गुरु को अपने-अपने संकल्प के बारे में बताकर वहां से चले गए लेकिन वह शिष्य जो खुद को सबसे अलग दिखाना चाहता था वह सीधे गुरु की कुटिया में पहुंच गया और बोला मैं कोई छोटा मोटा संकल्प नहीं लेना चाहता बल्कि खुद की ही जैसे एक और महान संकल्प लेना चाहता हूं कृपया आप ही बताएं मुझे क्या संकल्प लेना चाहिए उसकी यह बात सुनकर गुरु मुस्कुराए बोले क्या तुम मेरे द्वारा दिए गए संकल्प को पूरा कर पाओगे क्या तुम्हारे लिए उसे पूरा करना संभव होगा शायद नहीं वह तुम्हारे लिए संभव नहीं तुम उसे पूरा नहीं कर पाओगे इसीलिए तुम खुद ही कोई संकल्प ढूंढो शिष्य ने कहा नहीं गुरुदेव आप जो भी संकल्प मुझे देंगे मैं जरूर उसे पूरा करूं गुरु ने कहा ठीक है तो तुम अगले एक महीने तक चुप रहो मुंह से एक शब्द भी नहीं निकालो यही है तुम्हारा संकल्प शिष्य ने कहा गुरुदेव यह भी कोई संकल्प है यह तो बहुत ही आसान है आप कोई संकल्प दीजिए जो मेरी योग्यता के बराबर हो गुरु ने कहा पहले तो तुम इस संकल्प को तो पूरा करके दिखाओ शिष्य ने गुरु की बात मान ली और वह उसी समय चुप हो गया और पलटकर कुटिया से बाहर चला गया उसे चुप रहना बहुत आसान लग रहा था उसने एक दिन तो जैसे तैसे चुप रहकर काट लिया लेकिन दूसरे दिन से उसके मन में ना बोलने का बोझ बढ़ने लगा और तीसरे दिन उसे भारीपन महसूस होने लगा और चौथे दिन उसके अंदर एक अजीब सी बेचैनी होने लगी क्योंकि आसपास आश्रम के सभी शिष्य एक दूसरे से बातें कर रहे थे वह भी अपना पक्ष उनके सामने रखना चाहता था उनकी बोलती बंद कर देना चाहता था लेकिन उसका संकल्प उसके आ रहा था इसीलिए वह पूरे दिन सिर्फ और आंखें बनाता इसी तरीके से कुछ दिन और बीते और वह शिष्य बीमार पड़ गया उसका सिर फटा जा रहा था उसका खाने पीने तक का मन नहीं था वह सिर्फ बोलना चाहता था वह गुरु के पास गया और उनके सामने बैठकर लिखकर उन्हें बताया गुरुदेव मैं बोलना चाहता हूं बिना बोले मुझे सांस नहीं आ रही है मेरा दम घुटता जा रहा है मैं अंदर ही अंदर पागल हुआ जा रहा हूं मैं क्या करूं संकल्प तोड दूं क्या यह सुनकर गुरु मुस्कुराए और बोले मैं संकल्प तोडने के लिए नहीं होते जो अपने संकल्प को पूरा कर लेता है वह अपनी आंतरिक शक्ति को बढ़ाता है और जो अपनी आंतरिक शक्ति को बढ़ा लेता है वह समाज और जागृति की राह पर आगे बढ़ जाता है संकल्प का लेना भी तुम्हारे हाथ में था और इसे तोड़ना भी तुम्हारे हाथ में है तुम्हारे बहुत से भाई अपने संकल्प को तोड़कर अपनी पुरानी दिन पर वापस आ चुके हैं अगर तुमसे नहीं हो पा रहा तो तुम भी संकल्प तोड़कर अपनी पुरानी दिनचर्या पर वापस जा सकते हो लेकिन याद रहे अगर आज तुम इस छोटे से संकल्प को नहीं संभाल पा रहे तो तुम अपनी बाकी की पूरी जिंदगी को कैसे संभाल सकोगे बाकी फैसला पूरी तरह से तुम्हारे हाथों में है गुरु की यह बात उस शिष्य के दिल में चोट कर गए वह बिना कुछ बोले वहां से वापस चला गया और खुद को अपनी कुटिया में बंद कर वह केवल अपने जरूरी कामों के लिए यही कुटिया से बाहर निकलता बाकी सारे समय कुटिया के अंदर ही बैठा रहा 15 दिन बीत चुके थे और आश्रम के लगभग सभी शिष्यों का संकल्प अब तक टूट चुका था लेकिन उसका संकल्प अभी भी जारी था संकल्प लेने के बाद से अब तक उसने एक शब्द भी नहीं बोला सारा आश्रम हैरान था कि इतना बोलने वाला इंसान चुप कैसे हो 15 दिन बीतने के बाद वह दोबारा अपने गुरु के पास गया और लिखकर बताया है गुरुदेव मैं बाहर से तो चुप हूं लेकिन मेरे भीतर बहुत सी आवाजें हैं बहुत सी चीख पुकार और शिकायतें हैं मैं अंदर ही अंदर बात करता रहता हूं मेरा मन तरह-तरह के प्रश्न पूछता है मैं बाहर से जितना शांत हूं भीतर से उतने ही शोर शराबे से भरा हूं क्या इस तरह से मेरा संकल्प अभी भी है गुरु ने कहा हां तुम्हारा संकल्प अभी भी जारी है लेकिन जब तक लोगों की यह आवाजें तुम्हारे कानों में जाती रहेगी तुम्हारा मन बोलता रहेगा क्योंकि इसे तो आदत है तुम भले ही बाहर से चुप रहो लेकिन तुम अंदर ही अंदर बोलते रहोगे तुम्हें इन बातों से इन आवाजों से दूर जाना चाहिए शिष्य गुरु को प्रणाम कर वहां से चला जाता है और सुबह होते ही अपनी कुटिया छोड़ जंगल की तरफ चला जाता है कई दिन बीत जाते संकल्प का समय भी पूरा हो जाता है लेकिन शिष्य लौटकर नहीं आया आश्रम में सभी को डर था कि कहीं जंगली जानवर ने उसे खा न लिया हो इस बीच उसे ढूंढने की बहुत कोशिश की गई लेकिन वह कहीं नहीं मिला गुरु भाइयों ने मान लिया था कि जंगली जानवरों ने उसे अपना शिकार बना लिया है लेकिन गुरु को ऐसा नहीं लगता था एक दिन आश्रम का एक अन्य शिष्य गुरु के पास आया और बोला गुरुदेव हमारे उस अधिक बोलने वाले भाई के साथ क्या हुआ होगा क्या जानवर ने उसे मार दिया होगा गुरु ने कहा हो सकता है कि जानवरों ने उसे अपना शिकार बना लिया हो लेकिन उसके ना लौटने की एक दूसरी वजह भी हो सकती है शायद उसे वह मिल गया है जिसके लिए वह गया था फिर शिष्य ने पूछा गुरुदेव क्या
ज्यादा बोलना इतना हानिकारक होता है गुरु ने बोला कहा इंसान के जीवन के बहुत सारे दुखों में से एक दुख यह भी है कि वह कभी चुप नहीं रह सकता हमेशा कुछ ना कुछ बोलता ही रहता है सिर्फ हमारे बोलने के कारण हमारे आधे से ज्यादा दुख पैदा होते हैं हम में से कोई भी चुप नहीं रहना चाहता हम बस सामने वाले को सुना देना चाहते हैं जो भी हमारे मन में है सब निकालकर उसके मन में बैठा देना चाहते हैं उसे समझा देना चाहते हैं कि देख तू गलत है और मैं सही इस तरीके से सुनने और सुनाने का यह काम जिंदगी भर चलता रहता है लेकिन इस नासमझी में हम अपना समय अपना जीवन अपनी समझ और सबसे महत्त्वपूर्ण और कीमती पल जो जिए जा सकते हैं जिनको अनुभव किया जा सकता है जिनमें आनंद को प्राप्त किया जा सकता है यह सब खो देते हैं लेकिन इसके बदले हमें मिलता क्या है कुछ नहीं सब व्यर्थ और बर्बाद हो जाता है शिष्य ने पूछा तो फिर इसका समाधान क्या है गुरु ने कहा पूरी जागरूकता के साथ अपने विचारों को देखना यही एक मात्र तरीका है सारी मानसिक समस्याओं का वर्तमान में रहकर चिंतन करना पूरी जागरूकता के साथ अपना काम करना जिंदगी में चमत्कारिक बदलाव ला देता है उसके बाद वह शिष्य गुरु से अपने प्रश्नों का उत्तर पाकर उनको प्रणाम करके वहां से चला गया उस शिष्य को आश्रम छोड़ कर गए तीन महीने का समय बीत चुका था लेकिन उसकी कोई खबर नहीं अब तक तो सभी गुरु भाइयों ने भी उसके वापस लौटने की उम्मीद छोड़ दी थीं लेकिन एक दिन वह आश्रम लौट आता है लेकिन अब वह वह नहीं था जो यहां से गया था वह कुछ और ही बनकर वापस आया था उसके अंदर एक गजब का बदलाव महसूस किया जा सकता था उसके चेहरे पर एक गजब का ठहराव और आंखों में बड़ी शांति थी आश्रम में आते ही सभी गुरु भाइयों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और बातें करने लग गए वह भी अपने गुरु भाइयों से बातें करने लगा उससे बात करने वाले सभी ने यह अनुभव किया कि अब वह पहले जैसा उतावला और बातूनी नहीं रह गया था उसके मुंह से एक एक शब्द बहुत ही सुलझे हुए और मधुरता के साथ निकल रहे थे थोड़ी देर तक गुरु भाइयों से बात करने के बाद वह सीधा गुरु की तरफ चला गया उसने गुरु के चरण छुए और कहा गुरुदेव क्या मैं अब भी मौन हूं क्या अब भी मेरा संकल्प जारी है गुरु ने कुछ देर तक शिष्य की आंखों में बड़े ध्यान से देखा और कहा हां तुम अब भी मौन हो तुम्हारे मुंह से एक भी शब्द निकल नहीं रहा और तुम्हारा संकल्प अभी भी जारी है तो उसने कहा गुरुदेव जब मैं आश्रम से गया तो मैं मुंह से तो चुप था लेकिन मेरे अंदर बहुत सी आवाजें थी मन में बहुत से प्रश्न थे और वह बंद नहीं हो रहे थे तो मैं जंगल में चला गया इस उम्मीद से कि वहां मुझे शांति मिलेगी और मेरे मन की बकबक कम हो जाएगी लेकिन मैं जितना एकांत में जाता गया मेरे अंदर की आवाज उतनी ही तेज होती गई मेरे भीतर की पुरानी से पुरानी आवाज मुझे सुनाई देने लगी तब जाकर मैंने महसूस किया कि मैं कितना गलत कर रहा था जब मैं अपने परिवार वालों दोस्तों को और गुरु भाइयों को बुरा भला कहता था तो उस समय मुझे लगता था कि मैं सही कह रहा हूं जब मैं गुरु भाइयों की एक दूसरे से चुगली करता था और उनका मजाक बनाता तब भी मुझे यही लगता था कि मैं उनसे बेहतर हूं और मैं सही कर रहा हूं लेकिन उस दिन मैंने पहली बार महसूस किया कि मैं कितना गलत बोलता था काफी दिनों तक यह आवाजें यह शिकायतें मेरे अंदर चलती रही लेकिन धीरे-धीरे करके एक दिन यह सारी आवाजें मेरे अंदर से समाप्त हो गई अब मैं भीतर से भी मौन हो गया उस घने जंगल में बाहर से कोई बोलने वाला था नहीं और भीतर कोई आवाज बची ही नहीं थी और मैं उस दिन पहली बार मौन का सही अर्थ समझा मेरे चारों तरफ बहुत शांति थी हालांकि अभी भी कुछ आवाजें आ रही थी जो पहले भी आती थी लेकिन मैं उन्हें सुन नहीं पाता था अब वह सभी आवाजें मुझे स्पष्ट रूप से सुनाई दे रही थी हवा के चलने की आवाज चिड़ियों के चहक की आवाज और पानी के बहने की आवाज यह सभी आवाजें मैंने पहली बार पूरे होश पूर्वक सुनी अपने चारों तरफ इतनी शांति मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी तो इस शांति को भंग करने के लिए मैंने पहली बार अपने मुंह से कोई शब्द निकाला मैं चिल्लाया हे ईश्वर यह कैसी शांति है सभी कुछ इतना शांत क्यों है ऐसा क्या हो गया लेकिन मेरे चिल्लाने के बाद भी शांति भंग नहीं हुई सब कुछ पहले जितना ही शांत था बाहर भी और भीतर भी हे गुरुदेव मैंने अपने गुरु भाइयों से बात की मैंने आप से बात की मैं बोल रहा हूं मैं चल रहा हूं मैं सब कुछ देख रहा हूं लेकिन मैं अपने भीतर एकदम एकांत में हूं मौन में हूं भीड़ में होता हूं तब भी भीतर से अकेला एकांत में होता हूं जब मैं खुद में भी शोर करना चाहता हूं तब भी एकांत में ही होता हूं अब सब दिखाई पड़ने लगा है सब सुनाई पड़ने लगा है गुरु ने कहा जब तक हम बाहर की तरफ बोलते रहेंगे भीतर अशांति ही रहेगी लेकिन जिस दिन हम भीतर की तरफ मुड़ जाएंगे तब हमारे मुंह से कुछ भी निकलेगा हम शांत ही रहेंगे दुनिया में जितनी भी बुराइयां हैं ज्यादातर हमारे बोलने से ही उत्पन्न होती है क्योंकि हम चुप रहना नहीं चाहते हम जितनी जरूरत है उससे कहीं ज्यादा बोलते हैं हम सामने वाले को सुनना नहीं चाहते बल्कि उसकी बोलती बंद कर देना चाहते हैं उसे समझा देना चाहते हैं कि मैं कौन हूं मैं क्या कर सकता हूं और यही हमारी जिंदगी का मकसद बनकर रह जाता है हमारी सारी ऊर्जा व्यर्थ के बोल में बर्बाद होती रहती है ऐसे ही समाज में लोगों का जीवन दुखों से भर जाता है जो हमेशा एक दूसरे को सुनाने में लगे रहते हैं कभी एक दूसरे को सुनना नहीं चाहते समझना नहीं चाहते और चुप रहना तो उन्होंने कभी सीखा ही नहीं क्योंकि चुप रहना उन्हें छोटा महसूस करवाता है दुनिया की सभी लड़ाइयां का कारण हमारा बोलना ही है इसलिए हमें सिर्फ उतना ही बोलना चाहिए जितना जरूरी हो क्योंकि व्यर्थ का बोलना ऊर्जा को नष्ट करना है और यह बोलना ही हमें कभी अपने भीतर की ओर लौटने नहीं देता क्योंकि यह हमें बाहर की ओर खींच कर रखता है और बाहर है ही क्या इस संसार के अलावा लेकिन अगर अपने भीतर के संसार की ओर मुड़ना है तो इस मुंह को बंद ही रखना चाहिए इसीलिए जितने भी ज्ञानी हुए आत्मज्ञानी हुए वह सभी एकांत की ओर भागे ताकि उन्हें ज्यादा ना बोलना पड़े ज्यादा सुनना ना पड़े वह एकांत में रहे और शांत रहे इसीलिए आसानी से भीतर की यात्रा कर पाए लेकिन अगर कोई चाहे तो इस संसार में रहकर भी एकांत में रह सकता है शांत रह सकता है लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी ऊर्जा बचानी होगी जिसे वह अब तक अपने व्यर्थ के शब्दों में बर्बाद कर रहे थे दोस्तों इस कहानी की सीख यही है कि व्यर्थ का बोलना ऊर्जा को नष्ट करना है ज्यादा और व्यर्थ बोलना ही हमें अपने भीतर की ओर लौटने नहीं देता क्योंकि यह हमें बाहर की ओर झुकाए रखता है और जिन्हें भीतर की यात्रा करनी है उन्हें अपने मुंह को बंद ही रखना चाहिए मुझे उम्मीद है कि आपको यह कहानी पसंद आई होगी और काफी कुछ सीखने को मिला होगा कहानी के बारे में अपने विचार आप हमें नीचे कमेंट बॉक्स में कमेंट करके बता सकते हैं बाकी अगर यह कहानी आपको अच्छी लगी हो तो इस वीडियो को लाइक करें और ऐसी और कहानी सुनने के लिए 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